विनायक सावरकर जिन पर भी गीता और महाभारत की उनकी ‘युद्धवादी’ समझ ही हावी रही.

1909 में ही जब मदनलाल ढींगरा ने लंदन में कर्नज वॉयली की सरेआम गोली मारकर हत्या की थी, तो इसके पीछे दोनों छोटे सावरकर-बंधुओं की प्रेरणा तय मानी जा रही थी. सावरकर ने इस हत्या के बाद भी ढींगरा के समर्थन में व्यापक राजनीतिक गोलबंदी भी की थी. जबकि गांधी ने उस समय कड़े शब्दों में लिखा था कि दंड ढींगरा को नहीं बल्कि उसे सिखानेवाले को दिया जाना चाहिए. गांधी के शब्द थे – ‘(हत्यारे) की सफाई निकम्मी है. यह काम हमारे विचार से कायरता का है. फिर भी उसके ऊपर तो दया ही आती है. उसने निकम्मा साहित्य ऊपर-ऊपर से पढ़कर यह काम किया है. उसने अपने बचाव का बयान भी रट रखा था, ऐसा जान पड़ता है. दंड तो उसको सिखाने वाले को देना चाहिए. मैं उसको निर्दोष मानता हूं. हत्या नशे में किया गया कार्य है. नशा केवल शराब या भांग का ही नहीं होता, किसी पागलपन भरे विचार का भी हो सकता है.’

सावरकर और महात्मा गांधी
सावरकर और महात्मा गांधी

अब यह स्पष्ट नहीं है कि गांधी ने ढींगरा को सिखानेवाले के रूप में सावरकर-बंधुओं की पहचान की थी या नहीं. क्योंकि उस घटना के बाद भी गांधी न सिर्फ नारायण सावरकर की प्रतिभा से प्रभावित रहे, बल्कि दोनों गणेश और विनायक सावरकर को बचाने के प्रयास में भी लगे. गांधी के स्वभाव की एक अद्भुत खासियत थी कि तमाम मतभेदों के बावजूद वे अपने विरोधियों से भी संवाद में रहना चाहते थे. सावरकर-बंधुओं के साथ भी शुरू से उन्होंने वही रवैया अपना रखा था. वे चाहते थे कि सावरकर-बंधुओं की ऊर्जा को यदि अहिंसक प्रतिरोध की दिशा में मोड़ा जा सके, तो भारत के स्वतंत्रता-आंदोलन को अच्छे नेता मिल सकते हैं. प्रतिभाशाली और नेतृत्वशाली व्यक्तियों की पहचान कर उन्हें राष्ट्रीय आंदोलन में शामिल करने की भावना उनमें हमेशा से रही थी और सावरकर-बंधुओं के प्रति भी वे ऐसा ही दृष्टिकोण रखते थे.

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